भारतीय आईटी नियमों को लेकर सुप्रीम कोर्ट सख्त, मोदी सरकार से मांगा जवाब

नई दिल्ली। भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) नियम, 2009 को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से जवाब मांगा है। यह मामला सॉफ्टवेयर फ्रीडम लॉ सेंटर की ओर से दायर एक जनहित याचिका से जुड़ा है, जिसमें सूचना प्रौद्योगिकी नियमों के कुछ प्रावधानों को चुनौती दी गई है। याचिकाकर्ता का कहना है कि इन नियमों के तहत सरकार को यह अधिकार प्राप्त है कि वह ऑनलाइन प्लेटफॉर्म से किसी भी सूचना को हटा सकती है, लेकिन यह प्रक्रिया पूरी तरह से पारदर्शी नहीं है। याचिका में विशेष रूप से सूचना प्रौद्योगिकी (जनता द्वारा सूचना तक पहुंच को अवरुद्ध करने की प्रक्रिया और सुरक्षा उपाय) नियम, 2009 की कुछ धाराओं को चुनौती दी गई है। इसमें कहा गया है कि किसी भी डिजिटल प्लेटफॉर्म से किसी सूचना को हटाने से पहले उसके स्रोत (ओरिजिनल क्रिएटर) को नोटिस दिया जाना चाहिए। इससे यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि जानकारी को बिना किसी उचित कारण के हटाया न जाए और यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन न हो। याचिकाकर्ता का तर्क है कि मौजूदा आईटी नियम सरकार को व्यापक अधिकार देते हैं, जिससे सरकारी एजेंसियां बिना किसी पूर्व सूचना के ऑनलाइन सामग्री को हटाने का निर्देश दे सकती हैं। इससे न केवल सूचना की स्वतंत्रता प्रभावित होती है, बल्कि लोगों को बिना कारण बताएं उनकी पोस्ट, लेख या डिजिटल सामग्री से वंचित किया जा सकता है। सोमवार को हुई सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को इस मामले में नोटिस जारी कर दिया। कोर्ट ने सरकार से छह सप्ताह के भीतर जवाब दाखिल करने को कहा है। शीर्ष अदालत का यह कदम आईटी नियमों की वैधता और पारदर्शिता को लेकर उठाए जा रहे सवालों को गंभीरता से लेने का संकेत देता है। आईटी अधिनियम, 2000 के तहत बनाए गए ये नियम सरकार को किसी भी डिजिटल सामग्री को राष्ट्रहित, सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और सुरक्षा के आधार पर हटाने का अधिकार देते हैं। हालांकि, इस प्रक्रिया में आमतौर पर प्रभावित व्यक्ति को सूचना नहीं दी जाती, जिससे कई बार अनुचित सेंसरशिप की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। सरकार का पक्ष यह हो सकता है कि ये नियम फर्जी खबरों, साइबर क्राइम, देशविरोधी कंटेंट और नफरत फैलाने वाले पोस्ट पर लगाम लगाने के लिए आवश्यक हैं। लेकिन आलोचकों का मानना है कि इस कानून का गलत इस्तेमाल भी किया जा सकता है और इसे किसी भी असहमति को दबाने के लिए एक सेंसरशिप टूल के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। डिजिटल अधिकारों की वकालत करने वाले संगठनों का कहना है कि इन नियमों में पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी है। अगर कोई पोस्ट, ब्लॉग या वीडियो हटाया जाता है, तो उसके लेखक या प्रकाशक को इसके बारे में जानकारी मिलनी चाहिए। उन्हें यह भी जानने का अधिकार होना चाहिए कि किस आधार पर यह निर्णय लिया गया है। अब जब सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से जवाब मांगा है, तो यह देखना दिलचस्प होगा कि सरकार इस पर क्या सफाई देती है। यदि सरकार इस कानून को उचित ठहराती है, तो उसे यह साबित करना होगा कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित किए बिना केवल देशहित में काम कर रहा है। वहीं, अगर अदालत को लगता है कि यह कानून बहुत अधिक प्रतिबंधात्मक है, तो इसमें संशोधन की संभावना बन सकती है। सूचना प्रौद्योगिकी नियम, 2009 को लेकर सुप्रीम कोर्ट का यह कदम महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह डिजिटल अधिकारों और ऑनलाइन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़ा मामला है। सरकार को अब छह सप्ताह के भीतर अदालत को यह स्पष्ट करना होगा कि वह इन नियमों को पारदर्शी बनाने के लिए क्या कदम उठा सकती है। इस फैसले का असर भविष्य में सोशल मीडिया सेंसरशिप, ऑनलाइन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सरकारी नियंत्रण पर पड़ सकता है।
