राज्य सरकार अब एससी और एसटी जातियों में कर सकेंगे उपवर्गीकरण, सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने दिया ऐतिहासिक फैसला
नई दिल्ली। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए राज्य सरकारों को अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) जातियों में उपवर्गीकरण की अनुमति दे दी है। इस निर्णय से एससी और एसटी समुदायों के विभिन्न उपसमूहों के बीच सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को दूर करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है। एससी और एसटी श्रेणियों के भीतर उप-वर्गीकरण (कोटे के अंदर कोटा) की वैधता पर सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को फैसला सुना दिया। कोर्ट ने राज्यों को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों में उप-वर्गीकरण की अनुमति दे दी है। सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की संविधान पीठ ने फैसला सुनाया है। सीजेआई डीवाई चंद्रचूड की अध्यक्षता वाली 7 जजों की संविधान पीठ ने तय किया कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति श्रेणियों के लिए उप-वर्गीकरण किया जा सकता है। सात जजों की संविधान पीठ में सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ के अलावा जस्टिस बी आर गवई, विक्रम नाथ, जस्टिस बेला एम त्रिवेदी, जस्टिस पंकज मिथल, जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा शामिल हैं। सीजेआई ने कहा कि 6 राय एकमत हैं, जबकि जस्टिस बेला एम त्रिवेदी ने असहमति जताई है। सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में ऐतिहासिक साक्ष्यों का हवाला दिया। उन्होंने कहा कि अनुसूचित जातियां एक सजातीय वर्ग नहीं हैं। उप-वर्गीकरण संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत निहित समानता के सिद्धांत का उल्लंघन नहीं करता है। साथ ही उप-वर्गीकरण संविधान के अनुच्छेद 341(2) का उल्लंघन नहीं करता है। अनुच्छेद 15 और 16 में ऐसा कुछ भी नहीं है जो राज्य को किसी जाति को उप-वर्गीकृत करने से रोकता हो। कोर्ट ने कहा कि अनुसूचित जातियां एक समरूप समूह नहीं हैं और सरकार पीड़ित लोगों को 15% आरक्षण में अधिक महत्व देने के लिए उन्हें उप-वर्गीकृत कर सकती है। अनुसूचित जाति के बीच अधिक भेदभाव है। सुप्रीम कोर्ट ने चिन्नैया मामले में 2004 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को खारिज कर दिया, जिसमें अनुसूचित जाति के उप-वर्गीकरण के खिलाफ फैसला सुनाया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एससी के बीच जातियों का उप-वर्गीकरण उनके भेदभाव की डिग्री के आधार पर किया जाना चाहिए। राज्यों द्वारा सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश में उनके प्रतिनिधित्व के अनुभवजन्य डेटा के संग्रह के माध्यम से किया जा सकता है। यह सरकारों की इच्छा पर आधारित नहीं हो सकता। पंजाब सरकार ने अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित सीटों में से 50 फीसद ‘वाल्मिकी’ एवं ‘मजहबी सिख’ को देने का प्रविधान किया था। 2004 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को आधार बनाते हुए पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी थी। इस फैसले के खिलाफ पंजाब सरकार व अन्य ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी। 2020 में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने कहा था कि वंचित तक लाभ पहुंचाने के लिए यह जरूरी है। मामला दो पीठों के अलग-अलग फैसलों के बाद 7 जजों की पीठ को भेजा गया था। इस फैसले के पीछे का प्रमुख कारण यह है कि विभिन्न अनुसूचित जातियों और जनजातियों के भीतर भी कई उपसमूह हैं, जो सामाजिक और आर्थिक रूप से अधिक पिछड़े हुए हैं। राज्य सरकारें अब इन उपसमूहों की पहचान कर उन्हें विशेष लाभ और आरक्षण प्रदान कर सकती हैं, ताकि समाज के सबसे कमजोर वर्गों को भी विकास के समान अवसर मिल सकें। इस ऐतिहासिक फैसले का स्वागत करते हुए विभिन्न राज्यों की सरकारों ने कहा है कि इससे अनुसूचित जातियों और जनजातियों के भीतर के उपसमूहों को अधिक सटीक और न्यायसंगत लाभ मिल सकेंगे। राज्य सरकारें अब इस निर्णय के आधार पर अपने-अपने राज्य में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के उपवर्गीकरण की प्रक्रिया शुरू करेंगी। इसके अतिरिक्त, इस फैसले के कारण राज्य सरकारों को अपने-अपने राज्यों की सामाजिक संरचना के अनुसार विशेष योजनाओं और कार्यक्रमों को लागू करने में आसानी होगी। इससे न केवल समाज के वंचित वर्गों को सशक्तिकरण मिलेगा, बल्कि सामाजिक समानता की दिशा में भी महत्वपूर्ण प्रगति होगी। सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय से देश के संवैधानिक ढांचे में एक नया अध्याय जुड़ गया है, जिससे अनुसूचित जातियों और जनजातियों के उपवर्गीकरण के माध्यम से सामाजिक और आर्थिक विकास को और अधिक समावेशी बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया गया है।